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मौन लेखनी

मौन रहती है भेद कह कर,

मुखर कर जाए गूढ़ लेखन।
सिसकती आहें न छिप पाए, 
रूह तड़पाए चित्र लेखन।

कागज हमराही है इसका,
रोश्नाई संगी हमजोली।
खामोश आहें निकलती हैं,
कूची चीत्कार कर बोली।

तूलिका कुदरत की देखो,
अलौकिक छटा बिखरती है।
नित-नित चित्रांकन नव्या,
प्रकृति नव श्रंगार करती है।

अवलेखा कायनात पकड़ी,
ब्रह्माण्ड रचना कर डाली।
कहीं पर सिंचन शैवालिनी,
कहीं दृश्य अरुणोदय लाली।

सात समंदर मसि है भव की,
लेखनी सम्पूर्ण कानन है।
धरती है कागज कुदरत का,
नैसर्गिक दिव्य प्रलेखन है।

स्वरचित-सरिता श्रीवास्तव "श्री"
धौलपुर (राजस्थान) 

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5 Comments

Mohammed urooj khan

18-Oct-2023 05:27 PM

👌👌👌👌

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Reena yadav

17-Oct-2023 12:35 PM

👍👍

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सुन्दर सृजन

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